दिल्ली नगर निगम में एल्डरमैन की नियुक्ति को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुना दिया है। कोर्ट ने कहा कि उपराज्यपाल (एलजी) सरकार से सलाह लिए बिना नगर निगम में एल्डरमैन की नियुक्ति कर सकते हैं। कोर्ट के फैसले के बाद आप सरकार को तगड़ा झटका लगा है। दिल्ली सरकार ने मंत्रिपरिषद की सलाह के बिना नगर निगम में एल्डरमैन की नियुक्ति करने के उपराज्यपाल के फैसले को चुनौती देते हुए कोर्ट में याचिका दायर की थी। इस पर सुनवाई करते हुए बीते वर्ष मई में सुप्रीम कोर्ट ने फैसला सुरक्षित रख लिया था। कोर्ट ने माना कि नगर निगम अधिनियम के तहत उपराज्यपाल को वैधानिक शक्ति दी गई है। जबकि सरकार कार्यकारी शक्ति पर काम करती है। इसलिए उपराज्यपाल को वैधानिक शक्ति के अनुसार काम करना चाहिए, न कि दिल्ली सरकार की सहायता और सलाह के अनुसार। कोर्ट ने कहा कि नगर निगम अधिनियम में प्रावधान है कि उपराज्यपाल नगर निगम प्रशासन में विशेष ज्ञान रखने वाले दस व्यक्तियों को नामित कर सकते हैं।
न्यायमूर्ति पीएस नरसिम्हा ने कहा कि धारा 3(3)(बी)(आई) के तहत विशेष ज्ञान वाले व्यक्तियों को नामित करने की वैधानिक शक्ति पहली बार डीएमसी अधिनियम 1957 के 1993 के संशोधन द्वारा उपराज्यपाल को दी गई थी। एलजी का उद्देश्य कानून के जनादेश के अनुसार कार्य करना है और मंत्रिपरिषद की सहायता और सलाह से निर्देशित नहीं होना है। प्रयोग की जाने वाली शक्ति एलजी का वैधानिक कर्तव्य है न कि राज्य की कार्यकारी शक्ति। दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) में 250 निर्वाचित और 10 नामांकित सदस्य हैं। दिल्ली सरकार ने आरोप लगाया था कि उपराज्यपाल ने उसकी सहायता और सलाह के बिना 10 सदस्यों को नामित किया था। शीर्ष अदालत में मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़, न्यायमूर्ति जेबी पादरीवाला और न्यायमूर्ति मनोज मिश्रा की पीठ ने एमसीडी की महापौर शेली ओबेरॉय की एक याचिका पर सुनवाई की थी। शेली ओबेरॉय ने अपनी याचिका में मांग की है कि नगर निगम को अपनी स्थायी समिति के कार्यों का प्रयोग करने की अनुमति दी जाए।
सीजेआई ने कही थी यह बात
सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि उपराज्यपाल को एमसीडी में ‘एल्डरमैन’ नामित करने का अधिकार देने का मतलब है कि वह निर्वाचित नगर निकाय को अस्थिर कर सकते हैं। सीजेआई की अध्यक्षता वाली पीठ ने एमसीडी में ‘एल्डरमैन’ को नामित करने के उपराज्यपाल के अधिकार को चुनौती देने वाली याचिका पर फैसला सुरक्षित रखते हुए यह बात कही थी।
याचिका में किया गया था यह दावा
दिल्ली सरकार की ओर से दायर याचिका में दावा किया गया है कि 1991 में संविधान के अनुच्छेद 239AA के लागू होने के बाद से यह पहली बार है कि उपराज्यपाल ने चुनी हुई सरकार को पूरी तरह दरकिनार करते हुए इस तरह से ‘एल्डरमैन’ को नामित किया है। इसमें यह भी कहा गया कि एलजी मंत्रिपरिषद की मदद और सलाह पर कार्य करने के लिए बाध्य हैं। यदि कोई मतभेद होता है, तो वह इस मुद्दे को राष्ट्रपति के पास भेज सकते हैं। याचिका में कहा गया कि उपराज्यपाल के पास सिर्फ दो ही विकल्प हैं, पहला- चुनी हुई सरकार की ओर से सुझाए गए गए नामों को मंजूर किया जाए और दूसरा- अगर प्रस्ताव पर सहमति न बने तो इसे राष्ट्रपति के पास भेज दिया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने मार्च में इस मामले में दिल्ली एलजी से जवाब मांगा था।
इसलिए खड़ा हुआ था विवाद
दरअसल, 250 पार्षदों वाले दिल्ली नगर निगम में एल्डरमैन की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण होती है। एल्डरमैन मेयर के चुनाव या किसी बिल को पास करने के दौरान वोट तो नहीं कर सकते, लेकिन ये जोनल कमेटियों में मतदान कर सकते हैं। नगर निगम की सबसे ताकतवर स्टैंडिंग कमेटी के चुनाव के लिए जोनल कमेटियों से ही सदस्य चुनकर आते हैं। ऐसे में स्टैंडिंग कमेटी के गठन में अप्रत्यक्ष तरीके से एल्डरमैन की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण हो जाती है। यही कारण है कि आम आदमी पार्टी और दिल्ली के उपराज्यपाल एल्डरमैन की नियुक्ति को अपने हाथ में रखने की हर संभव कोशिश कर रहे हैं। पिछले मेयर के चुनाव के समय ही उपराज्यपाल वीके सक्सेना ने 10 एल्डरमैन की नियुक्ति कर दी थी। भाजपा उन्हें मतदान का अधिकार भी दिलाने की कोशिश कर रही थी, जबकि आप एल्डरमैन को पिछली परंपरा के अनुसार वोट डालने का अधिकार देने को तैयार नहीं थी। अंततः यह विवाद सर्वोच्च न्यायालय की चौखट पर पहुंच गया था जिसमें अदालत ने एल्डरमैन को नगर निगम के सदन में वोटिंग का अधिकार देने से मना कर दिया था।